जीत की कहानी: साधु सुंदर सिंह


साधु सुंदर सिंह का शूरवाती जीवन 

इस दुनिया में कई क़िस्म के लोग हैं, और उनकी विभिन्न कहानियाँ हैं। पर साधु सुंदर सिंह की कहानी ऐसी कोई आम नहीं है,  ये कहानी है एक खोज की और एक जीत की। उनकी ज़िंदगी के बारे में जान कर मेरी अपनी ज़िंदगी में काफ़ी बदलाव आया है, और मैं आशा करता हूँ की यह पढ़ कर आपको भी लाभ होगा।

साधु सुंदर सिंह एक पंजाबी परिवार से थे, और उनकी माँ ने उनको एक क्रिस्चियन (christian) स्कूल में  यह सोचकर भर्ती किया की वह उस स्कूल में अच्छी इंग्लीश सीख जाएँगे। 14 साल की उमर में, उनकी माँ गुज़र गयी, और उन्होने उस दुख और क्रोध में अपने दोस्तों की संगति में एक-एक पन्ना करके बाइबल को आग लगादी। 

यीशु मसीह के साथ उनकी मुलाक़ात 

उनको अपनी ज़िंदगी का अर्थ समझने में काफ़ी कठिनाई आई, और उन्होने यह सोचा की वो अगर ईसाई धर्म  को सवाल करें तो शायद उन्हे वो जवाब मिलें जो वह ढूंड रहे थे। वो रेल की पटरी पे जा बैठे और बोले की अगर कोई सच्चा खुदा है तो वह उन्हे आ के बचा ले। उन्हे उसी समय यीशु मसीह नज़र आए, और उन्होने अपनी ज़िंदगी क्रिस्चियन मिशनेरी काम को अर्पण करदी।

उनके पिता ने यह जानकर उनको स्वीकार नहीं किया। उनके परिवार वालो और दोस्तो ने उनको छोड़ दिया और उनकी हत्या करने का भी कई बार प्रयास किया। उन्हे समाज की आँखो में बहुत नामंज़ूरी का सामना करना पड़ा। 

साधु सुंदर सिंह का मिशनेरी जीवन 

वह शिमला के पहाड़ों में एक चर्च के साथ काम करने के लिए गये, जहाँ वो कोढ़ियों का इलाज करने में मदद करते रहे। 16 साल की उमर में, उन्होने वहीं ब्पतिसमा लिया और अपना जीवन पूरी तरह से यीशु को सौंप दिया।

उन्होने अपना नया मसीही जीवन वहीं से शुरू किया, एक साधु की तरह एक केसरी पगड़ी और कपड़े पहन कर। वो खुद को एक साधु कहते थे क्योंकि उनकी सोच में यीशु मसीह के बारे में हिन्दुस्तानी लोगो को इस देश के रंग-रूप में बताना ज़्यादा लाभदायक और आसान था। वो मानते थे की वो यीशु के योग्य ही नही हैं, पर उनकी ही तरह, उनको कोई घर या दुनियाई संपत्ति नहीं चाहिए, पर सिर्फ़ दुखदाई लोगो का दुख बाँटना और पीड़ितो की मदद करना ही उनकी ज़िंदगी का लक्ष्या था।

उनको अपने गाँव में कभी प्यार नहीं मिला, पर उन्होने पंजाब, कश्मीर, आफ्गानिस्तान, तिब्बत और कई और देशों और शहरों में यात्रा की तथा यीशु मसीह के प्यार और सच्चाई के बारे में कई लोगो को बताया जिनमे से कई फिर यीशु को मानने लगे। उन्हे कई कठीनाइओ का भी सामना करना पड़ा- जब वह तिब्बत में थे लोगो ने उन पर पत्थर मारे; जब वह अपनी ट्रेनिंग कर रहे थे, बस 8 महीनो में उन्होने वो कॉलेज छोड़ दिया क्योंकि वहाँ उन्हे कोई स्वीकार नहीं करता था। 

उनके कपड़े, उनका रहन-सहन बाकी अँग्रेज़ मिशनरी लोगो से काफ़ी अलग था। वो उनका अंदाज़ अपनाने का महत्व नहीं मानते थे क्योंकि उन्हे केवल यीशु मसीह के बारे में दुनिया को बताने से मतलब था। वो अँग्रेज़ी संस्कृति और ईसाई शिक्षा के मिलाप के खिलाफ थे। 

साधु सुंदर सिंह का चरित्र 

साधु सुंदर सिंह ने अपनी पूरी ज़िंदगी लोगो की मदद करने में और उनको यीशु मसीह का प्यार दिखाने में लगा दी। इस सब में भी उनका दिल और चरित्र साफ़ था। लोग हमेशा कहते थे की वह बहुत नम्र थे और उनका जीवन ऐसा था जैसे यीशु मसीह का होता।

अपनी ज़िंदगी में इतना कुछ सहन करते हुए भी उन्होने कभी भी हार नहीं मानी। इतने सालों में जो भी उन्होने अपनी यात्राओं से सीखा और अनुभव किया, उन्होने 8 किताबों में लिख डाला जो पहले उर्दू में थी, फिर उनका इंग्लीश में अनुवाद किया गया।

साधु सुंदर सिंह की ज़िंदगी ने दुनिया भर में लाखों लोगो को प्यार और अच्छाई का रास्ता दिखाया है, ज़िंदगी में कठोरता से घिरे हुए भी यीशु मसीह आप की ज़िंदगी में आपको विजय दिला सकते हैं। मेरी अपनी ज़िंदगी में मैं उनके बारे में जान कर एक बेहतर ज़िंदगी जीने के लिए प्रेरित हुआ हूँ, और मेरी आशा हैं की आप भी इस कहानी से प्रेरित हो।

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Nirvi

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